वर्ण व्यवस्था का उद्भव भारतीय समाज एवं संस्कृति के विकास के आरम्भिक दौर में हुआ।
अतः इस लेख में वर्ण एवं जाति से संबंधित तथ्यों को उजागर किया गया है।
वर्ण एवं जाति के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि वर्ण और जाति दोनों अलग-अलग हैं। लेख में प्रयुक्त विचार मुख्यतः समाजशास्त्रियों के हैं। जिसका सरलीकरण प्रस्तुत किया गया है।
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि भारतीय समाज में कृषि विकास के परिणामस्वरूप जो एक नयी उत्पादन प्रणाली आयी, उसके संचालन के लिए श्रम-विभाजन की आवश्यकता पड़ी होगी जिससे समाज में वर्ण व्यवस्था का उदय हुआ होगा।
वर्ण सम्भवतः स्तरण का प्राचीनतम आधार है। प्रारम्भ में ऋग्वेद के अन्तर्गत दो ही वर्ण की चर्चा मिलती है- आर्य वर्ण एवं दास वर्ण।
पर उसी वेद में समाज के तीन स्तरीय विभाजन की भी चर्चा की गयी है-ब्रह्म, क्षात्र एवं विश।
शूद्र जो चौथे या सबसे निम्न सोपान पर खड़े हैं उसकी चर्चा नहीं मिलती है।
पर ऐसे सामाजिक समूह की चर्चा अवश्य की गयी है जिसे आर्य लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे।
जिसे अयोग्य, चाण्डाल एवं निषाद कहकर पुकारा गया है, यही लोग सम्भवतः आगे चलकर शूद्र कहलाए।
कुछ विद्वानों का मानना है कि प्रारंभ में शूद्र लोग अछूत नहीं माने जाते थे। वे लोग मजदूर, सेवक, नौकर या रसोईया का भी काम किया करते थे (सिंह, 2008: 245-246)।
प्रारंभ में वर्ण एवं जाति का कोई सोपानक्रम भी नहीं हुआ करता था, वे सभी बराबर हुआ करते थे।
विभिन्न वर्ण एवं जाति के बीच आपस में शादियाँ भी होती थीं।
जब भारतीय समाज वैदिक काल (4000 बी०सी०-1000बी०सी०) से ब्राह्मण काल (230 बी०सी०-700 ई०) में आया तो वर्ण एवं जाति व्यवस्था के अंतर्गत एक निश्चित सोपानक्रम विकसित हुआ।
वर्ण का अर्थ-
’वर्ण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ’रंग’ होता है।
इससे स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था में सामाजिक विभाजन का आधार ’रंग’ रहा होगा। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।
जिसके आधार पर, आरंभिक काल में गोरे रंग के विजयी या शोषक लोगों का एक वर्ण-समूह तथा श्याम रंग के द्रविड़ एवं काले रंग के मूल निवासियों का दूसरा वर्ण समूह बना (सिंह, 2008: 246)।
इरावती कर्वे का कहना है कि वर्ण शब्द का प्रयोग ’रंग’ के अर्थ में नहीं हुआ है।
उनका कहना था कि इस शब्द का प्रयोग सोपानक्रम (Hierarchy) के सम्बन्ध में हुआ है, जबकि घुर्ये एवं श्रीनिवास रंग के ही अर्थ को ज्यादा उपयुक्त मानते हैं (सिंह, 2008: 246)।
मानक संस्कृत शब्दकोश के अनुसार वर्ण के दो अर्थ होते हैं।
पहला अर्थ है वरण करना या धारण करना और दूसरा अर्थ है जन्मजात वृत्ति या स्वाभाव।
इस तरह, वर्ण उन चार स्थायी सामाजिक समूहों का नाम है जिसका निर्माण व्यक्तियों द्वारा अपनी स्वाभाविक वृत्ति, स्वभाव एवं गुण के अनुसार स्वेच्छा से चुने हुए व्यवसाय के आधार पर होता है।
समय में परिवर्तन के साथ-साथ यह परिभाषा भी अनुपयुक्त हो गयी। आर्थिक एवं सामाजिक विकास के परिणामस्वरूप समाज में श्रम-विभाजन उत्पन्न हुआ।
इससे समाज में गुण, व्यवसाय एवं कर्म के आधार पर स्थायी वर्ण विभाजन की व्यवस्था कायम हुई।
समय बीतने के साथ यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न रहकर कर्म पर आधारित हो गयी।
संक्षेप में वर्ण व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज में सभी सदस्यों को जन्म, गुण, कर्म, अधिकार, व्यवसाय और पद के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित करने की एक स्थायी व्यवस्था थी।
अतः उक्त विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में व्यक्तियों को चार वर्णों में बाँटा गया, वे हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र।
ब्राह्मण वर्ण का मुख्य कार्य पूजा-पाठ करना एवं करवाना तथा मानव एवं ईश्वर के बीच माध्यस्थता का कार्य करना।
क्षत्रियों का कार्य अस्त्र-शस्त्र द्वारा समाज को सुरक्षा प्रदान करना था।
वैश्य का कार्य था समाज में आर्थिक उत्पादन एवं सुचारू वितरण के लिए व्यापार का संचालन करना।
इसी तरह, शुद्रों का कार्य शारीरिक श्रम करना था ताकि समाज के लोगों को उनकी सेवा का समुचित लाभ मिले।
इससे स्पष्ट है कि समाज में धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, श्रम एवं सेवाओं की आवश्यकता पूर्ति के निमित वर्ण एवं जाति व्यवस्था कायम हुई।
पहले यह व्यवस्था गुण एवं कर्म पर आधारित थी जो आगे चलकर जन्म एवं पेशा पर आधारित हो गयी। धीरे-धीरे वर्ण की जगह भारतीय समाज जाति के आधार पर स्तरित हो गया।
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इस्टेट क्या है?
यूरोपीय समाज कभी इस्टेट के आधार पर स्तरित था। प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत राजा-महाराजा, उच्च शासनाधिकारी एवं बड़े-बड़े जागीरदार आते थे। चर्च के लोग दूसरे इस्टेट के प्रतिनिधि माने जाते थे। तीसरी श्रेणी में समाज के साधारण लोग आते थे, जैसे-दास, मजदूर, किसान, व्यापारी, कारीगर इत्यादि। इसे साधारण वर्ग भी कहा जाता है। इस्टेट व्यवस्था का स्वरूप यूरोप के किसी भी देश में राष्ट्रीय या राजकीय पैमाने पर एक समान नहीं पाया जाता था, बल्कि इसका स्वरूप क्षेत्रीय था। अर्थात् सामाजिक स्तरण का स्वरूप स्थानीय था, राष्ट्रीय नहीं।
वर्ग व्यवस्था के आधार पर समाज के कितने भाग होते हैं?
(1) उच्च वर्ग, (2) मध्यम वर्ग एवं (3) निम्न वर्ग।
Reference:
1-Ghurye, G.S. (1950).’Caste and Class in India’, Popular Book Depot, Bombay.
2-Karve, Iravati (1968). ‘Hindu Society: An Interpretation, Deccan College, Poona.
3-सिंह, जे०पी० (1999), ’समाजशास्त्र: अवधारणाएँ एवं सिद्धांत’, प्रेंटिस हॉल ऑफ इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
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