समाजशास्त्रीय शोध एक अत्यंत व्यापक अवधारणा है।
सामाजिक शोध का प्रयोग समाजशास्त्र की तरह अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों, जैसे-राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, लोक प्रशासन, सामाजिक मनोविज्ञान और यहाँ तक कि इतिहास में भी शोध की विषय-वस्तु की आवश्यकतानुसार हेर-फेर के साथ किया जाता है।
समाजशास्त्रीय शोध सामाजिक अनुसंधान की मात्र एक शाखा है,
जिसके अध्ययन की विषय-वस्तु मानव की सामाजिक क्रियाएँ या क्रियाकलाप तथा उनसे व्युत्पन्न सामाजिक संबंधों का तानाबाना (Web of Social Relationships) है।
इसी तानेबाने से किसी समाज के ’सामाजिक ढांचे’ की रचना होती है।
समाजशास्त्रीय शोध का मुख्य विषय यही सामाजिक ढांचा या सामाजिक व्यवस्था है।
सामाजिक संस्थाएं, सामाजिक समूह, सामाजिक प्रक्रियाएँ (प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, सहयोग आदि), प्रस्थिति एवं भूमिका, सामाजिक स्तरीकरण (जाति, वर्ग, जागीर आदि) जैसी प्रघटनाओं और इनसे जुड़ी समस्याओं का अध्ययन ही समाजशास्त्रीय शोध की प्रमुख विषय-वस्तु है।
समाजशास्त्रीय शोध का उद्देश्य-इसका उद्देश्य सामाजिक जगत से संबंधित प्रश्नों के उत्तर की खोज करना है।
यह खोज समाज वैज्ञानिक विधि से की जाती है। इसके अन्तर्गत समाज और सामाजिक व्यवहारों से संबंधित कई प्रश्न हो सकते हैं,
जैसे, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ही क्यों अधिक आत्महत्या करती हैं?
अपराध अधिकांशतः गंदी बस्तियों में ही क्यों जन्मते और पनपते हैं?
विभिन्न समाजों के लोकाचारों, रीतिरिवाजों एवं परम्पराओं में क्यों भिन्नता है?
किसी एक समाज की अपेक्षा दूसरे समाज में वैवाहिक रिश्ते क्यों अधिक टूटते हैं?
आतंकवाद के क्या कारण एवं निदान हैं?
समाज में व्यवस्था कैसे स्थापित होती है?
समाज क्यों विघटित होते हैं?
समाज की व्यवस्था में पुनर्सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाये? आदि।
अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक शोध भी किसी न किसी प्रश्न के समाधान के उद्देश्य को लेकर की जाती है।
ये प्रश्न कब, क्यों, कहाँ, और कैसे से जुड़े होते हैं।
कभी-कभी प्रश्नों का रूप ’अगर’ (If) और ’तब’ (Then) का भी हो सकता है।
सामान्यतः सामाजिक शोध के एकाधिक उद्देश्य हो सकते हैं-
(1) कोई समाज, समुदाय, संस्था या समूह कैसे कार्य करता है, उसकी संरचना के मुख्य तत्व कौन-कौन से हैं, विभिन्न लोगों की क्या प्रस्थिति एवं भूमिका है, इन विषयों की जानकारी प्राप्त करना किसी समाजशास्त्रीय शोध का उद्देश्य हो सकता है।
भारत में किये गये प्रारंभिक समाजशास्त्रीय शोध किसी जनजाति, जाति, गाँव या संयुक्त परिवारों जैसे विषयों को लेकर ही किए गए थे, उनकी प्रकृति इसी प्रकार की थी।
(2) किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यवहार और सामाजिक कार्यकलापों को समझना। अपराध और अपराधी, या तलाकशुदा व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन इसी श्रेणी में आता है।
(3) किन्हीं सामाजिक समस्याओं के फैलने, समाज पर उनके प्रभावों को जानने या इन समस्याओं के निदान की जानकारी प्राप्त करना। इस प्रकार की शोध लक्षण-परीक्षण शोध (Diagnostic Research) कहलाता है।
(4) सामाजिक यथार्थ को समझना, सामाजिक जीवन की गहराई में जाना, सामाजिक प्रक्रियाओं के पीछे कार्य करने वाले नियमों की खोज करना।
(5) किसी परिकल्पना का परीक्षण या नए सिद्धान्तों को विकसित करना।
अतः वैज्ञानिक विधियों के माध्यम से सामाजिक शोध का मुख्य उद्देश्य मानव के सामाजिक जीवन को समझना, उसकी गुत्थियों और उलझनों को सुलझा कर मानव जीवन को अधिकाधिक सुखकर बनाना है।
इन उद्देश्यों को दो समूहों में बांटा जा सकता है-
सैद्धांतिक उद्देश्य (Theoretical Objective)-
जब किसी शोध, सामाजिक शोध, अनुसंधान का उद्देश्य मात्र ’ज्ञान के लिए ज्ञान प्राप्त करना’ होता है, तब इसे सैद्धांतिक या बौद्धिक उद्देश्य कहते हैं।
इस प्रकार की शोध किसी व्यावहारिक समस्या के समाधान, निदान या नीति निर्माण से प्रेरित न होकर मात्र ज्ञान में वृद्धि के उद्देश्य से की जाती है।
इस अध्ययन के प्रारंभ में उद्धृत अल्डुअस हक्सले का कथन शोध के सैद्धान्तिक उद्देश्य पर ही बल देता है।
सैद्धांतिक उद्देश्य पर आधारित गवेषणाओं को विशुद्ध या मूलभूत शोध (Pure or Fundamental Research) कहा जाता है।
उपयोगितावादी उद्देश्य (Utilitarian Objective)-
इस प्रकार का अनुसंधान किसी तात्कालिक समस्या के समाधान, निदान या नीति-निर्माण के उद्देश्य से प्रेरित होता है।
मानव के जीवन को अधिकाधिक सुखकर बनाना ही इस प्रकार की शोध का मूल उद्देश्य होता है।
ज्ञान का महत्व, वास्तव में उसके व्यावहारिक प्रयोग द्वारा ही प्रकट होता है।
शोध-प्रश्नों के उत्तरों को खोजने का दूसरा कारण किसी कार्य अथवा क्रिया को अच्छे तथा अधिक कुशलता से सम्पादन करने के तरीकों या विधियों को जानने की इच्छा होती है।
ऐसे शोध-प्रश्नों का उद्देश्य ’व्यावहारिक उपयोग के लिए ज्ञान’ (Knowledge for Practical Use) होता है। इस उद्देश्य से की गई गवेषणा ’व्यावहारिक शोध’ के नाम से जाती है।
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सन्दर्भ-
1-रावत, हरिकृष्ण (2013), ’सामाजिक शोध की विधियां’, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर।
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