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समाजशास्त्र का परिभाषिकरण

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समाजशास्त्र की क्या आवश्यकता है?

यह पूछना बहुत ही स्वाभाविक है कि जब दूसरे सामाजिक विज्ञान हैं, तो समाजशास्त्र की क्या आवश्यकता है?

इतिहास अतीत की घटनाओं का वर्णन करता है।

राजनीतिशास्त्र राज्य की शक्ति के बंटवारे का अध्ययन करता है।

अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं को देखता है।

जब ये सब विज्ञान अपना-अपना अध्ययन कर रहे हैं, तो समाजशास्त्र कौन-सी नई बात करेगा?

आखिर समाजशास्त्र की क्या आवश्यकता है?

ये सब सामाजिक विज्ञान मनुष्य के सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करते हैं, पर इससे सम्पूर्ण-सामाजिक जीवन क्या है?, इसका कोई पता नहीं लगता है।

अतः समाजशास्त्र की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि मनुष्य के सामाजिक जीवन को हम उसके समग्र रूप व उसके पूर्ण रूप में देखें।

इस प्रकार समाजशास्त्र सम्पूर्ण मानव जीवन का अध्ययन करता है।

यदि बहुत थोड़े शब्दों में समाजशास्त्र को परिभाषित किया जाये तो यह कहना पड़ेगा कि यह विज्ञान मनुष्यों की अन्तःक्रियाओं का विज्ञान है।

मनुष्य अपने दैनिक जीवन में कई लोगों के सम्पर्क में आता है। जैसे व्यापारी-ग्राहक, अध्यापक-विद्यार्थी, वकील-मुवक्किल, पति-पत्नी आदि के बीच में अन्तःक्रियाएं समाज में पाई जाती हैं।

पहले यह अन्तःक्रियाएं बहुत सरल थीं। आवागमन के साधान उतने अधिक नहीं थे, पर सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारी अन्तःक्रियाएं भी अधिक जटिल हो गईं हैं। इन जटिल अन्तःक्रियाओं के अध्ययन के लिये समाजशास्त्र की आवश्यकता बहुत स्पष्ट हो जाती है।

समाजशास्त्र का विकास:

टी०बी० बॉटमोर ने समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास के प्रमुख चरणों की चर्चा की है, जो इस तरह से हैं-

प्रथम चरण-

इसके अन्तर्गत हम कुछ प्राचीन विचारकों एवं लेखकों के विचारों को संदर्भित करते हैं।

इस सिलसिले में प्राचीन यूनान के दो प्रमुख विचारकों प्लेटों एवं अरस्तु के विचार महत्वपूर्ण हैं – प्लेटो ने अपनी प्रसिद्ध कृति ’दि रिपब्लिक’ एवं अरस्तु ने अपनी प्रख्यात पुस्तक ’एथिक्स एण्ड पॉलिटिक्स’ में तत्कालीन सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं से सम्बद्ध चर्चाएं की हैं।

इन पुस्तकों में पारिवारिक जीवन, रीति-रिवाज, स्त्रियों की स्थिति आदि का एक स्पष्ट वर्णन हैं।

समाजशास्त्र के लिए ये रचनाएं आगे चलकर बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुईं।

द्वितीय चरण-

मोटे तौर पर इस चरण में हम छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के काल की बात करते हैं जिसमें समय-समय पर धर्म का भी सहारा लिया जाता था।

दूसरे चरण के अन्त में कुछ ऐसे भी चिंतक मिलते हैं जिनके विचारों से यह मालूम होता है कि उस काल में दर्शन और धर्म की जगह तर्क प्रधान हो गया।

इस काल के प्रमुख विचारकों में अक्यूनॉस और दांते का नाम लिया जा सकता है। इन विचारकों ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी ही नहीं माना, बल्कि समाज की परिवर्तनशीलता को भी स्वीकार किया।

इसके साथ यह भी माना कि परिवर्तन के पीछे निश्चित रूप से कुछ नियम और शक्तियां कार्य करती हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि इन विचारकों के चिंतन में वैज्ञानिकता का प्रभाव था।

तृतीय चरण-

कुछ हद तक इस काल में ही, जो 15वीं शताब्दी से आरम्भ होता है, समाजशास्त्र की पृष्ठभूमि तैयार होती है।

इसमें सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों पर विस्तृत चर्चाएं देखने को मिलती हैं।

हॉब्स, रूसो, लॉक आदि दार्शनिकों ने समाज के उद्भव की विस्तार से चर्चा की।

इसी समय सामाजिक समाझौते का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया। टॉमस मोर ने अपनी पुस्तक ’यूटोपिया’ में अनेक सामाजिक समस्याओं की चर्चा की।

चतुर्थ चरण-

चतुर्थ चरण में ही सही मायने में समाजशास्त्र की पृष्टभूमि तैयार हुई।

बॉटमोर ने कहा कि ’’The pre-history of sociology….can be assigned to a period of about one hundred years, roughly from 1750 to 1850 (Bottomore 1972 : 19)।’’

परन्तु समाजशास्त्र का विकास एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल में हुआ है। यह आधुनिक समाजशास्त्र का निर्माण काल माना जाता है।

चतुर्थ चरण के कुछ प्रमुख सामाजिक चिंतकों में मॉनटेस्क्यू , कौंत, स्पेन्सर, मार्क्स आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जिन्होंने समाजशास्त्र का पथ प्रदर्शन एवं विकास किया।

यह सही है कि मार्क्स ने कभी समाजशास्त्र जैसे शब्द का प्रयोग अपने किसी लेख या पुस्तक में नहीं किया, लेकिन समाजशास्त्र के विकास में उनके वैचारिक योगदानों की अहम भूमिका रही है।

औद्योगिक एवं फ्रांसीसी क्रांति इस काल की महत्वपूर्ण घटनाओं में से है।

इन घटनाओं ने पुरानी सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं को झकझोर दिया।

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में काफी नये परिवर्तन आए, जैसे कल-कारखानों का विकास, आधुनिक मुद्रा व्यवस्था, बहुमात्र-उत्पादन, मजदूरी व्यवस्था में परिवर्तन इत्यादि।

दूसरी तरफ सामाजिक क्षेत्र में पुराने सांस्कृतिक मूल्यों एवं धर्म की जड़ें हिलने लगीं, बुद्धिवाद तथा तर्क का विकास हुआ।

गांव के स्थान पर नगरों का विकास, सामन्ती वर्ग की जगह औद्योगिक वर्ग का विकास, विस्तृत एवं संयुक्त परिवार के स्थान पर मूल परिवारों का विकास होने लगा।

राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्तिक स्वतंत्रता, लोकतंत्रीय मूल्यों एवं समानता जैसे विचारों का विकास होने लगा।

इस प्रकार हम देखते हैं कि यूरोप में एक नए युग का सूत्रपात हुआ और इसी के साथ-साथ कुछ नई बौद्धिक परम्पराओं का भी उदय हुआ।

समाजशास्त्र के विकास में जिन प्रमुख बौद्धिक परम्पराओं का योगदान सबसे अधिक रहा है उन्हें हम चार भागों में बाट कर देख सकते हैं।

समाजशास्त्र के विकास के संबंध में बॉटमोर के उपर्युक्त विचार से जिटलिन सहमति व्यक्त करते हैं, पर उनका कहना है कि समाजशास्त्र की उत्पत्ति दो विरोधी विचारधाराओं के बीच अन्तःक्रिया से हुई है।

प्रथम विचारधारा को प्रगति की विचारधारा और दूसरी को व्यवस्था की विचारधारा की संज्ञा दी है।

पहली विचारधारा को 18वीं सदी की विचारधारा माना जाता है।

प्रगति की विचारधारा को मानने वालों की मान्यता यह थी कि समाज प्रकृति का एक अंग है इसलिए प्रकृति का नियम समाज पर भी लागू होता है।

सामाजिक वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य उन नियमों की खोज करना है जिन नियमों से समाज संचालित एवं परिवर्तित होता है।

दूसरी और औद्योगिक तथा फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप यूरोपीय समाज एक संक्रांति काल से गुजरा था।

पुराने नियम, मूल्य एवं विचार टूट रहे थे और उनकी जगह पर नये सामाजिक नियम व कानून उदित हो रहे थे।

समाज में व्यापक अव्यवस्था फैली हुई थी।

इसके परिणामस्वरूप बुद्धिजीवी जगत में एक विरोधी विचारधारा का विकास 19वीं सदी के प्रारम्भिक काल में हुआ जिसे व्यवस्था की विचारधारा के नाम से जाना जाता है।

इस विचारधारा का नाम ऐसा इसलिए हुआ है कि इसे मानने वाले विचारक समाज में व्यवस्था को पूर्ण स्थापित करने की बात करते थे।

चूंकि कौंत का जन्म इसी काल में हुआ इसलिए वे दोनों तरह की विचारधाराओं से प्रभावित हुए।

कौंत ने ही सर्वप्रथम समाज के अध्ययन के लिए एक अलग विज्ञान की कल्पना की।

उनके अनूसार समाजशास्त्र सामाजिक घटनाओं का न सिर्फ वैज्ञानिक अध्ययन करेगा वरन् समस्त नियमों एवं शक्तियों का भी अध्ययन करेगा जिसके फलस्वरूप समाज में परिवर्तन होता है या व्यवस्था बनी रहती है।

इस नये विज्ञान का नाम उन्होंने सर्वप्रथम सामाजिक भौतिकी रखा था और बाद में इसका नाम सोशियोलोजी रखा। इस नवीन विज्ञान को उन्होंने ’’व्यवस्था एवं प्रगति का विज्ञान’’ के रूप में परिभाषित किया।

समाजशास्त्र का तेजी से विकास मुख्य रूप से फ्रांस, जर्मनी एवं अमेरिका में 20वीं सदी में हुआ है।

इसके बावजूद कि ब्रिटेन में बहुत बड़े-बड़े समाजशास्त्री एवं सामाजिक चिन्तक हुए, वहां के विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र एक विषय के रूप में काफी देर से उभरकर सामने आया।

1960 के दशक तक लन्दन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स एण्ड पॉलिटिकल साइंस के अलावा वहां अन्य विश्वविद्यालयों में नाममात्र का ही समाजशास्त्र था।

अमेरिका में भी विश्वविद्यालय स्तर पर समाजशास्त्र इसी सदी के प्रारम्भ में प्रचलित हुआ।

अमेरिका के येल, कोलम्बीया, शिकागो विश्वविद्यालयों ने समाजशास्त्र के प्रचार-प्रसार में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन सामान्य तौर पर समाजशास्त्र के विस्तार की गति धीमी ही रही।

हावर्ड विश्वविद्यालय ने, अमेरिका का सबसे पुराना विश्वविद्यालय होते हुए भी, समाजशास्त्र विभाग की शुरूआत 1930 के बाद की।

प्रिन्सटन विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र 1960 के दशक में आया। खैर जो भी हो, आज समाजशास्त्र विकसित देशों में तो पूरी तरह छा गया है। ऐसा लगता है कि इतने कम समय में इतनी तेजी से शायद ही किसी विषय का 20वीं सदी में विस्तार हुआ होगा।

शायद इस बात को दोहराये जाने की जरूरत नहीं है कि समाजशास्त्र यूरोप में पैदा हुआ और अमेरिका में विकसित हुआ जहां से वह सारी दुनिया में फैला।

आज समाजशास्त्र विश्व के अधिकांश विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है।

इस विषय की लोकप्रियता इसी से स्पष्ट होती है कि आज इस विषय की अनेक महत्वपूर्ण शाखाएं उभरकर सामने आयी हैं, जिनमें महत्वपूर्ण शोधकार्य चल रहे हैं तथा दूसरे सामाजिक विज्ञानों के लोग अपने अध्ययन में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपना रहे हैं।

भारत में समाजशास्त्र एक विज्ञान के रूप में पश्चिमी देशों से ही आया है।

अन्य देशों की तरह, भारत में भी कुछ ऐसे विचारक हुए हैं, जिनकी कृतियों में हमें प्राचीन सामाजिक व्यवस्था की झलक मिलती है।

कौटिल्य का ’’अर्थशास्त्र’’ मनु द्वारा रचित ’’मनुस्मृति’’ आदि प्राचीन ग्रंथों से प्राचीन भारतीय समाज के बारे में जानकारी मिलती है। लेकिन उन कृतियों का स्वरूप कतई समाजशास्त्रीय नहीं था।

यूरोप में, विशेषकर फ्रांस एवं इंग्लैंड में, समाजशास्त्र का उदय औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप हुआ लेकिन भारत में औद्योगिक क्रांति बहुत देर से प्रारम्भ हुई और समाजशास्त्र की उत्पत्ति पहले हुई।

हमारे यहां समाजशास्त्र की उत्पत्ति में उपनिवेशवाद के परिणामस्वरूप होने वाले पश्चिमीकरण एवं आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

यूरोपीय शासकों एवं व्यापारियों ने अपने देश के मानवशास्त्रियों, प्रशासकों, इतिहासकारों एवं ईसाई धर्म के प्रचारकों को भारतीय समाज में जाति व्यवस्था, जनजातियों, ग्रामीण समुदाय, संयुक्त परिवार, धर्म साहित्य एवं संस्कृति का अध्ययन करने के लिए काफी प्रोत्साहित किया।

उन लोगों ने भारतीय समाज और संस्कृति को गहराई से समझने का प्रयास किया ताकि वे भारत पर सफलतापूर्वक प्रभुत्व कायम रख सकें।

इस प्रयास में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के भारतविद् या प्राच्यवेत्ता पैदा हुए।

इन विद्वानों ने जो भारतीय समाज और संस्कृति का चित्रण प्रस्तुत किया उससे ऐसा लगता है कि भारत एक बहुत ही पिछड़ा, प्राचीन, दकियानूस, विचित्र एवं स्थिर सभ्यता एवं संस्कृति वाला देश है।

प्रारम्भिक पाश्चात्य विद्वानों में डब्ल्यू०ई० मार्शल व डब्ल्यू० रोबिन्सन इत्यादि का नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय है।

इन विद्वानों की कृतियों ने बहुत सारे भारतीयों को भी अपने समाज और संस्कृति का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।

भारतीय शि़क्षा जगत में एक नये प्रकार की बौद्धिक क्रांति हुई। भारतीय शिक्षा प्रणाली का प्रारम्भ पाठशाला से विश्वविद्यालयों तक विस्तार हुआ।

एम०एन० श्रीनिवास (1973) ने अपने एक लेख में 1773 से 1900 तक के काल को भारतीय मानवशास्त्र के साथ-साथ समाजशास्त्र का प्रारम्भिक काल माना है, लेकिन समाजशास्त्र के विकास के इस प्रथम काल खण्ड को सही मायने में समाजशास्त्र का प्रारम्भिक काल नहीं माना जा सकता है।

इससे असहमति के दो कारण हैं-

(1) जब समाजशास्त्र ने एक विषय के रूप में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में फ्रांस में जन्म लिया है तो भारत में इसका उद्गम 18वीं सदी में खोजना, अवैज्ञानिक है।

(2) 19वीं सदी तक भारतीय समाज और संस्कृति पर जितने भी काम किये गये हैं वे समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बिल्कुल ही गैर-समाजशास्त्रीय थे।

वे तमाम मुख्य रूप से इतिहास, धर्मशास्त्र साहित्य एवं नृजातिविज्ञान के अंग थे।

समाजशास्त्र की स्थापना तो भारत में 20वीं सदी के प्रारम्भ में हुई जिसे एम० एन० श्रीनिवास ने समाजशास्त्र के विकास का द्वितीय काल खण्ड (1900-1950) माना है।

सही मायने में द्वितीय काल खण्ड ही समाजशास्त्र के विकास का प्रथम काल खण्ड है।

इस काल खण्ड में समाजशास्त्र के क्षेत्र में मानवशास्त्रियों का काफी बोलबाला था।

उपर्युक्त पाश्चात्य विद्वानों की कृतियों से काफी भारतीय लोग प्रभावित हुए और एक नये बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ।

उनमें से कुछ लोगों ने, अन्य विषयों के अलावा, भारतीय दर्शन, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयों में विशेष रूचि दिखायी।

वे लोग प्रायः स्वाभाविक तौर पर उच्च जाति एवं जमींदार परिवार से जुड़े थे।

वे आर्थिक रूप से इतने सम्पन्न और सामाजिक दृष्टि से इतने जागरूक थे कि वे भारतीय महानगरों एवं इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके।

उन लोगों ने अपने ढंग से भारतीय समस्याओं पर विचार करना प्रारम्भ कर दिया।

प्रारम्भ में ये बुद्धिजीवी अंग्रेजी शासन के समर्थक थे और अंग्रेजों की मदद से भारतीय समाज में सुधार तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में विशेष रूचि लेते थे।

उस काल के विद्वानों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है – एक तो वे लोग जो घोर राष्ट्रवादी थे और दूसरे वे जो मार्क्सवादी थे।

प्रारम्भ में मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र इत्यादि साथ-साथ चल रहे थे, लेकिन 20वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में तमाम विषय एक दूसरे से धीरे-धीरे अलग होने लगे।

मानवशास्त्र और समाजशास्त्र जो एक दूसरे से विशेष रूप से जुड़ा हुआ था वह भी एक दूसरे से दूर होने लगा।

इसके बावजूद मानवशास्त्री समाजशास्त्र के विकास पर काफी प्रभावपूर्ण ढंग से दखल देते रहे, जिसका अवशेष अब भी स्पष्ट रूप से भारतीय समाजशास्त्र में देखने को मिलता है।

बी०एन० सील के प्रयासों से 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के साथ समाजशास्त्र की पढ़ाई एक ऐच्छिक विषय के रूप में प्रारम्भ की गयी।

बाद में इस विषय के साथ राधा कमल मुकर्जी एवं विनय कुमार सरकार जैसे लोग जुड़ गये।

1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में के०पी० चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में मानवशास्त्र के विभाग की स्थापना हुई और 1926 में बी०एस० गुहा जैेसे मानवशास्त्री इस विभाग से जुड़ गये। लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में मानवशास्त्रियों के एकाधिकार के कारण समाजशास्त्र एक विषय के रूप में कभी नहीं पनप सका।

भारत में समाजशास्त्र की वास्तविक शुरूआत 1914 में बंबई विश्वविद्यालय में हुई।

उस समय इसकी पढ़ाई अर्थशास्त्र के साथ एक ऐच्छिक पत्र के रूप में की गयी। वहां 1919 में नागरिकशास्त्र के साथ समाजशास्त्र का एक संयुक्त विभाग स्थापित किया गया और पैट्रिक गेडिंस, जो एक नगरीय समाजशास्त्री थे, इसके प्रथम अध्यक्ष बने।

बाद में इस विभाग से जी०एस० घुर्ये एवं के० एम० कापड़िया जैसे लोग जुड़े। पर वे लोग बुनियादी रूप से मानवशास्त्री ही थे। उनका प्रशिक्षण इंग्लैंड के मानवशास्त्र के क्षेत्र में ही हुआ था।

मुम्बई के बाद समाजशास्त्र की पढ़ाई 1921 में बी०एन० सील के प्रयास से लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रारम्भ हुई।

राधा कमल मुकर्जी इस विभाग के प्रथम अध्यक्ष बने।

कुछ ही दिनों बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र विभाग की स्थापना हुई जहां डी०एन० मजुमदार जैसे प्रखर मानवशास्त्री ने अध्यापन का कार्य प्रारम्भ किया।

पुणे विश्वविद्यालय में इस विषय की स्थापना मानवशास्त्र के साथ 1938 में की गई जिसकी प्रथम अध्यक्ष मानवशास्त्री ईरावती कर्वे हुई।

1920 से 1950 के बीच मानवशास्त्र एवं समाजशास्त्र में कई विद्वत् शोध-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के तथाकथित दूसरे चरण की समाप्ति हुई।

समाजशास्त्र ने अपने विकास के तृतीय चरण में 1951 में प्रवेश किया।

इस चरण में बहुत सारे महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र की पढ़ाई शुरू हुई और शिक्षा जगत में बड़ी तेजी से समाजशास्त्र एक लोकप्रिय विषय के रूप में उभरने लगा।

साथ ही 1952 में घुर्ये के सौजन्य से इंडियन सोशियोलोजीकल सोसायटी की स्थापना हुई जिसके माध्यम से ’सोशियोलोजीकल बुलेटिन’ नामक शोध-पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ।

कुछ ही दिनों बाद डी०एफ० पोकॉक एवं लुई डूमां जैसे प्रख्यात मानवशास्त्रियों ने ’कंट्रीब्यूशन टू सोशियोलोजी’ नामक शोध-पत्रिका का प्रकाशन किया, पर बड़े मजे की बात यह है कि इस पत्रिका में मुख्य रूप से मानवशास्त्रीय शोध-पत्र ही छपते रहे इसके बावजूद कि इस पत्रिका के नाम में समाजशास्त्र लगा हुआ है।

खैर जो भी हो, इस काल में ब्रिटिश मानवशास्त्र का भारतीय समाजशास्त्र पर प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगा और भारतीय समाजशास्त्र का स्वरूप अमेरिकन होने लगा।

समाजशास्त्र की परिभाषा, क्षेत्र एवं विषय वस्तु

समाजशास्त्र को समाज का विज्ञान कहा जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि समाज में जो कुछ है, समाजशास्त्र उसका अध्ययन करेगा।

ऐसी परिभाषा से समाजशास्त्र बहुत बड़ा हो जाएगा।

डर्कहाइम के अनुसार

डर्कहाइम ने यह कहा कि समाजशास्त्र में बहुत-सी घटनाएं केवल भौतिक होती हैं, जैसे- जब एक साइकिल सवार दूसरे से टकरा जाता है, तो वह सामाजिक घटना न होकर भौतिक घटना होती है। अतः समाजशास्त्र को केवल सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करना चाहिए।

आज समाजशास्त्र को इस प्रकार से परिभाषित नहीं किया जाता। आजकल इस विषय को बहुत ही विशिष्ट बनाने की कोशिश की गई है। आज समाजशास्त्र का महत्व सामाजिक संबंधों से लिया जाता है। अंग्रेजी के शब्द ’सोशियोलोजी’ के साथ कुछ लोगों को आपत्ति है। उनका कहना है कि यह विषय ग्रीक और लेटिन दो शब्दों से बना है और इसीलिए यह वर्ण संकर है। सोचा यह गया कि इस विषय का नाम बदल दिया जाये।

अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग का नाम मानव सम्बन्ध रखा गया, तो लोगों ने आपत्ति करते हुए कहा कि अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र, भी मानव संबंधों का अध्ययन करते हैं।

तब फिर इस विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग का नाम सामाजिक संबंध रखा गया।

दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि समाजशास्त्र मनुष्यों के बीच में पाये जाने वाले सामाजिक संबंधों का अध्ययन करता है।

होमन्स के अनुसार

अमेरिका के समाजशास्त्री होमन्स ने समाजशास्त्र की परिभाषा को और सरल कर दिया है। उनके अनुसार दो या दो से अधिक व्यक्ति एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तो यह समाजशास्त्र की अध्ययन सामग्री है।

19वीं शताब्दी का समाजशास्त्र

आधुनिक समाजशास्त्र की धारणा का विकास 19वीं शताब्दी से ही माना जाता है।

19वीं शताब्दी के समाजशास्त्र की यह विशेषता रही है कि समस्याएं सीमित थीं और उनका निराकरण विभिन्न सम्प्रदायों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से बतलाया।

इस शताब्दी के दार्शनिकों और विचारकों ने एक समाजशास्त्र को ऐतिहासिक दर्शन तथा ’’विकासवाद के सिद्धान्त’’ के आधार पर एक विशेष रूप से विकसित करने का प्रयत्न किया जैसा कि अगस्त कौंत, हर्बर्ट स्पेन्सर और कार्ल मार्क्स के विचारों से स्पष्ट है।

इसका परिणाम यह निकला कि समाजशास्त्र के प्रारम्भिक काल में ऐसे समाजशास्त्रीय नियमों की रचना की गई जिस पर विभिन्न समाजशास्त्री कभी भी सहमत नहीं हुए।

२०वीं शताब्दी में समाजशास्त्रीय धारणा

बीसवीं शताब्दी में समाजशास्त्रीय धारणा ने एक नई करवट ली।

धीरे-धीरे इन सभी समस्याओं को समाजशास्त्र से निकाल दिया गया जिन पर सहमति नहीं थी।

इस शताब्दी में समाजशास्त्र का वैज्ञानिक विवेचन शुरू हुआ और समाजशास्त्र को दृढ़ आधार पर खड़ा करने का सूत्रपात हुआ।

हंटिंग्टन केरन्स के अनुसार

हंटिंग्टन केरन्स का कहना है कि ’’समाजशास्त्रियों में कभी भी समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बारे में सहमति नहीं रही है और न ही इसके प्रति दृष्टिकोण में। इसलिए जब तक समाजशास्त्री अपने अध्ययन के उद्देश्य को परिभाषित न करें उस समय तक यही मानकर चलना पड़ेगा कि समाजशास्त्र वह है जो कुछ भी अपने को समाजशास्त्री कहने वाला व्यक्ति लिख दे।’’

“Until sociologists themselves define the object of their study, it will have to be assumed that sociology is what the men who call themselves sociologists write about.’’

ऐसी स्थिति में समाजशास्त्री की कोई भी स्वस्थ धारणा कैसे विकसित हो सकती थी।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि समाजशास्त्रीय धारणा का अपना कोई निजी विशेष गुण नहीं है।

निजी विशेष गुण तो है, लेकिन समस्या यह है कि उसको किस नाम से पुकारा जाये।

वास्तव में किसी भी क्षेत्र को निर्धारित करना बड़ा मुश्किल है और इतने बड़े विषय को कुछ ही शब्दों में व्यक्त करना और भी कठिन है।

समाजशास्त्र की परिभाषा पर अलेक्स इंकसल के विचार

कोई भी प्रयत्न जो बौद्धिक प्रयासों की सीमा बांधने के लिए किया जाता है, वह निरर्थक होता है।

मनुष्य में दूसरे प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि का विकास अधिक है जिसके आधार पर सामाजिक गणना की है।

समाजशास्त्र के संदर्भ में उसके क्षेत्र का ज्ञान लिया जाना इसलिए आवश्यक है कि इस विषय की सीमाओं के बारे में जानने में तथा इसकी विषय-वस्तु के अध्ययन में कोई व्यक्ति पथभ्रष्ट न हो।

इसलिए समाजशास्त्र को मुख्यतः तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों को निश्चित सीमाओं में बांधना नितान्त आवश्यक है।

इंकल्स ने समाजशास्त्र को परिभाषित करने के लिए तीन उपागमों को अपनाया है।

1-ऐतिहासिक उपागम (Historical Approach)

इसके अन्तर्गत हम परम्परागत समाजशास्त्रियों की रचनाओं में से उन मुख्य परम्पराओं को याद करते हैं, जो समाजशास्त्र के ज्ञान के लिए उपयोगी हैं।

अतः यह प्रश्न पूछते हैं कि “What did the founding fathers say” जिन संस्थापकों ने समाजशास्त्र विषय को चलाया उन्होंने इसकी परिभाषा दी उस समय में समाजशास्त्र से उनका क्या मतलब था।

अध्ययन का यह दृष्टिकोण ऐतिहासिक है।

2-आनुभाविक उपागम (Empirical Approach)

इसके अन्तर्गत वर्तमान समाजशास्त्री उन विषयों की खोज करते हैं जिन पर हमारा शास्त्र सबसे अधिक ध्यान देता है।

अतः हम प्रश्न करते हैं कि – “What are contemporary sociologists doing?” कथनी और करनी में बड़ा अन्तर है।

शायद समाजशास्त्र की जो परिभाषा हम देते हैं, समाजशास्त्री उसी के अनुसार काम नहीं करते।

सिद्धान्तों के अनुभव जुदा हैं।

अतः समाजशास्त्री आज जो कुछ कर रहा है, आनुभाविक है।

3-विश्लेषणात्मक उपागम (Analytical Approach)

इसके अन्तर्गत किसी क्षेत्र का विभाजन करके उसे सीमित करते हैं और विभिन्न विषयों को सोचते हैं तथा यह निर्धारित करते हैं कि अमुक विषय की सीमाएं तार्किक आधार पर यह हैं-

इस प्रकार हम पूछते हैं कि – “What dose reson suggest?” तर्क के अनुसार समाजशास्त्र को क्या करना चाहिए,

जब हम उस पर विचार करते हैं तो यह विश्लेषणात्मक उपागम है।

प्रत्येक पहलू को विस्तृत रूप से देखने के पहले हम यह समझ लें कि प्रत्येक पहलू कहां तक उपयुक्त है।

ऐतिहासिक उपागम

ऐतिहासिक उपागम में अपनी सिफारिश करने की क्षमता है।

यह पूर्व में दिये हुए ज्ञान और बौद्धिक विकास को व्यक्त करता है।

यह उन वर्तमान विषयों को समझाने का अवसर प्रदान करते हैं जिन्हें समझने में पृष्ठभूमि के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है।

इसमें एक शंका उत्पन्न होती है कि इतिहास को भिन्न-भिन्न लोग अलग-अलग प्रकार से प्रस्तुत करते हैं।

अतः इसमें यह सम्भावना अवश्य रहती है कि यह उपागम परम्परा एवं इतिहास के आधार पर उस संकुचित दृष्टिकोण तथा विकीर्णता को सामने रखता है, जिसमें हम वर्तमान के विस्तृत सम्पूर्ण दृष्टिकोण को पूरी तरह नहीं समझ पाते।

जैसे- मीराबाई को कुछ लोगों ने उच्चकोटि की भक्त कहा है जबकि कुछ लोगों ने उसे अलग तरह से परिभाषित किया है।

इस तरह इसमें यह कमजोरी है।

परीक्षणात्मक उपागम

इस विधि में किसी प्रकार की शंका की गुंजाइश नहीं होती है।

आमतौर पर इसमें किसी न किसी तरह की गिनती करने की आवश्यकता है।

आप एक को दस नहीं गिन सकते। “The empirical method is least ambiguous. It mainly requires some form of counting.” समाजिक घटना का अध्ययन, तथ्यों की गणना एवं उसका स्पष्टीकरण करना यही उस मुख्य विधि का कार्य है।

वर्तमान समाजशास्त्री जो कुछ कर रहे हैं वह उसकी विशेष रूचि का द्योतक है तथा न तो उसका संबंध पूर्व की परम्परा से और न वे भविष्य के लिए आश्वासन देता है।

सोरोकिन की राय में आजकल के समाजशास्त्रियों का कार्य केवल रूचि के अनुसार विशेष रूचि का द्योतक है।

सी० राइट मिल्स ने इस प्रकार की विधि को समाजशास्त्रीय कल्पनाओं का ह्रास कहकर संबोधित किया है।

विश्लेषणात्मक उपागम

विश्लेषणात्मक विधि में सबसे कम कठिनाइयां हैं।

कुछ वाक्य परिभाषा के दिये, कुछ पैराग्राफ्स अर्थ तथा स्पष्टीकरण के दिये और निष्कर्ष देते हुए विश्लेषणात्मक अध्ययन समाप्त कर दिया।

‘A few lines of definition, a few more paragraphs of explanation, and we have it.

जब से कौंत ने समाजशास्त्र की स्थापना की है तभी से घटनाक्रम को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिकों ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है।

इसमें मुखयतः सामाजिक वैज्ञानिक उन क्षेत्रों एवं उन बातों को चुन लेते हैं जो उन्हें उचित प्रतीत होती हैं।

फिर विषय की यह एक परिभाषा देते हैं एवं उसका स्पष्टीकरण करते रहते हैं,

चाहे तार्किक आधार पर उस विषय की वास्तविक सीमाएं बनाई जा सकें अथवा नहीं,

किन्तु सामाजिक वैज्ञानिक यह अवश्य स्पष्ट करते हैं कि जो रूपरेखा उन्होंने बनायी है, तार्किक आधार पर वही उचित है।

इन तीनों ही दृष्टिकोणों में कुछ न कुछ उपयोगिता अवश्य है।

अतः किसी एक को पूर्ण मानना या तीनों को न मानना हितकारी नहीं होगा।

सिद्धान्त जो धीरे-धीरे स्थापित होता है वह धीरे-धीरे समाप्त भी हो जाता है।

अतः हमें समाजशास्त्र में तथ्यों के आधार पर ही अध्ययन करना चाहिए।

यह कहना गलत होगा कि तथ्य स्वयं बोलते हैं।

तथ्य चाहे अपने आपको स्पष्ट तो करें, किन्तु किसी विशेष सन्दर्भ में वे स्वयं अपना चयन नहीं कर सकते।

उन्हें समस्या के आधार पर चुनना पड़ता है, अतः बड़ी सतर्कता रखनी चाहिए।

इस प्रकार इन सभी दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए तथ्यों के आधार पर समाजशास्त्र की एक उपयुक्त परिभाषा दी जानी चाहिए तथा उसकी विषय-वस्तु का निर्धारण किया जाना चाहिए।

सन्दर्भ: नागला, बी० के० (2006), ’समाजशास्त्र: एक परिचय’, हरियाणा साहित्य अकादमी’, पंचकूला, पृष्ठ सं०: 01-20 ।

Dr. Dinesh Chaudhary

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