यह लेख संघर्ष सिद्धांत से संबंधित है।
संघर्ष एक ऐसा शब्द है जिससे सभी परिचित हैं।
इसके मायने अलग-अलग हैं लेकिन आधार एक ही है।
बस समय-समय पर लोगों के व्यवहार करने और संघर्ष केमायने बदलते रहे हैं। लेख में दिए गए विचार लेखकों के हैं लेकिन उनको मैंने अपने स्तर से समझ कर प्रस्तुत करने का केवल प्रयास किया है।
जानवर की तरह ही मानव में भी समूह में रहने एवं संघर्ष करने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
शासक वर्ग के अत्याचार से बचने एवं उसे अपदस्थ करने के लिए सदा शासित जन-समूह को संगठित होकर संघर्ष करना पड़ा है।
जी० डब्ल्यू० हीगल (G.W.F. Hegel, 1770-1831) एवं कार्ल मार्क्स (Karl Marx, 1818-1883) दो प्रमुख सामाजिक विचारक हैं, जिनके संघर्ष-सिद्धांतों ने समाजविज्ञानियों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया है।
द्वन्द्व के सिद्धांत का मानना है कि सामाजिक जीवन का केन्द्र या आधार विरोधी तत्वों का द्वन्द्व है। इस सिद्धांत के प्रवर्त्तक यह नहीं मानते हैं कि समाज निर्विध्न उच्च और जटिल स्तर तक पहुँच सकता है।
उनके अनुसार समाज की हरेक क्रिया, विश्वास और अन्तःक्रिया की विरोधी प्रतिक्रिया अवश्य होती है।
सन्दर्भ-
सिंह, जे०पी० (2009), ’समाजविज्ञान विश्वकोश’, पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, पृ० 113।
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